पढने और संकलन का शौक ही इस ब्लॉग का आधार है... महान कवि, शायर, रचनाकार और उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ.... हमारे मित्र... हमारे गुरु... हमारे मार्गदर्शक... निश्चित रूप से हमारी बहुमूल्य धरोहर... विशुद्ध रूप से एक अव्यवसायिक संकलन जिसका एक मात्र और निःस्वार्थ उद्देश्य महान काव्य किवदंतियों के अप्रतिम रचना संसार को अधिकाधिक काव्य रसिकों तक पंहुचाना है... "काव्य मंजूषा"

Monday 11 March 2013

सोरठे

गई आगी उर लाय, आगि लेन आई जो तिय
लागी नाहिं बुझाय, भभकि भभकि बरि-बरि उठै

तुरुक गुरुक भरीपूरि , डूबि डूबि सुरगुरु उठै
चातक चातक दूरि, देह दहे बिन देह को

दीपक हिया छिपाय, नवल वधू घर ले चली
कर विहीन पछिताय, कुच लखि जिन सीसै धुनै

पलटि चली मुसकाय, दुति रहीम उपजात अति
बाती सी उसकाय, मानो दीनी दीप की

यक नाहीं यक पीर, हिय रहीम होती रहै
काहू न भई सरीर, रीति न बदन एक सी

रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं जलज मधुकर लसै
कैंधों शालिगराम, रुपै के अरघा धरै

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