गई आगी उर लाय, आगि लेन आई जो तिय।
लागी नाहिं बुझाय, भभकि भभकि बरि-बरि उठै॥
तुरुक गुरुक भरीपूरि , डूबि डूबि सुरगुरु उठै।
चातक चातक दूरि, देह दहे बिन देह को॥
दीपक हिया छिपाय, नवल वधू घर ले चली।
कर विहीन पछिताय, कुच लखि जिन सीसै धुनै॥
पलटि चली मुसकाय, दुति रहीम उपजात अति।
बाती सी उसकाय, मानो दीनी दीप की॥
यक नाहीं यक पीर, हिय रहीम होती रहै।
काहू न भई सरीर, रीति न बदन एक सी॥
रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं जलज मधुकर लसै।
कैंधों शालिगराम, रुपै के अरघा धरै॥
लागी नाहिं बुझाय, भभकि भभकि बरि-बरि उठै॥
तुरुक गुरुक भरीपूरि , डूबि डूबि सुरगुरु उठै।
चातक चातक दूरि, देह दहे बिन देह को॥
दीपक हिया छिपाय, नवल वधू घर ले चली।
कर विहीन पछिताय, कुच लखि जिन सीसै धुनै॥
पलटि चली मुसकाय, दुति रहीम उपजात अति।
बाती सी उसकाय, मानो दीनी दीप की॥
यक नाहीं यक पीर, हिय रहीम होती रहै।
काहू न भई सरीर, रीति न बदन एक सी॥
रहिमन पुतरी स्याम, मनहुं जलज मधुकर लसै।
कैंधों शालिगराम, रुपै के अरघा धरै॥
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