पढने और संकलन का शौक ही इस ब्लॉग का आधार है... महान कवि, शायर, रचनाकार और उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ.... हमारे मित्र... हमारे गुरु... हमारे मार्गदर्शक... निश्चित रूप से हमारी बहुमूल्य धरोहर... विशुद्ध रूप से एक अव्यवसायिक संकलन जिसका एक मात्र और निःस्वार्थ उद्देश्य महान काव्य किवदंतियों के अप्रतिम रचना संसार को अधिकाधिक काव्य रसिकों तक पंहुचाना है... "काव्य मंजूषा"

Wednesday, 13 March 2013

ग़ज़ल ४

अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझको
मैं हूँ तेरा नसीब अपना बना ले मुझको. 

मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझसे बचा के दामन, 
मैं जो अगर फूल हूँ तो जुड़े में सजा ले मुझको. 

मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे,
तू दबे पाँव कभी आके चुरा ले मुझको. 

तर्के उल्फत' की कसम भी कोई होती है कसम,
तू कभी याद तो कर, भूलने वाले मुझको. 

मुझको तू पूछने आया है वफ़ा के माने,
यह तेरी सादा दिली मार न डाले मुझको.

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तर्के उल्फत = सम्बन्ध विच्छेद