पढने और संकलन का शौक ही इस ब्लॉग का आधार है... महान कवि, शायर, रचनाकार और उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ.... हमारे मित्र... हमारे गुरु... हमारे मार्गदर्शक... निश्चित रूप से हमारी बहुमूल्य धरोहर... विशुद्ध रूप से एक अव्यवसायिक संकलन जिसका एक मात्र और निःस्वार्थ उद्देश्य महान काव्य किवदंतियों के अप्रतिम रचना संसार को अधिकाधिक काव्य रसिकों तक पंहुचाना है... "काव्य मंजूषा"

Thursday 11 October 2012

जाग री !

बीती विभावरी जाग री !
अम्बर-पनघट में डुबो रही- 
तारा-घट ऊषा नागरी !
बीती विभावरी जाग री !

खग-कुल कुल-कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई-
मधुमुकुल नवल रस गागरी !
बीती विभावरी जाग री !

अधरों में राग अमंद लिए,
अलकों मे मलयज बंद लिए,
तू अब तक सोई है आली-
आँखों में भरे विहाग री ! 

बीती विभावरी जाग री ! 
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