पढने और संकलन का शौक ही इस ब्लॉग का आधार है... महान कवि, शायर, रचनाकार और उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ.... हमारे मित्र... हमारे गुरु... हमारे मार्गदर्शक... निश्चित रूप से हमारी बहुमूल्य धरोहर... विशुद्ध रूप से एक अव्यवसायिक संकलन जिसका एक मात्र और निःस्वार्थ उद्देश्य महान काव्य किवदंतियों के अप्रतिम रचना संसार को अधिकाधिक काव्य रसिकों तक पंहुचाना है... "काव्य मंजूषा"

Saturday 28 July 2012

लोहे के पेड़ हरे होंगे...

लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम के गाता चल. 
नम होगी यह मिटटी जरुर,आंसू के कण बरसाता चल.

सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा,
कंकालों का हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा.
आशा के स्वर का भार, पवन को लेकिन, लेना ही होगा,
जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा. 
रंगों के सातों घाट उड़ेल, यह अंधियारी रंग जायेगी,
उषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल. 
लोहे के पेड़ हरे होंगे.... 

आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रज्ञा-प्रज्ञा पर टूट रही.
प्रतिमा-प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही. 
आवर्तों का है विषम जाल, निरुपाय बुद्धि चकराती है, 
विज्ञान-यान पर चढ़ी हुई सभ्यता डूबने जाती है. 
जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है,
शीतलता की है राह ह्रदय, तू यह संवाद सुनाता चल. 
लोहे के पेड़ हरे होंगे... 

सूरज है जग का बुझा-बुझा, चन्द्रमा मिलन सा लगता है,
सब की कोशिश बेकार हुई, आलोक न इन का जगता है.
इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे,
जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इन को ताजा कर दे. 
दीपक के जलते प्राण, दिवाली तभी सुहावन होती है,
रोशनी जगत को देने को अपनी अस्थियाँ जलाता चल. 
लोहे के पेड़ हरे होंगे...

क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारों में, 
फूलों को जो हैं गूंथ रहे, सोने-चांदी के तारों में?
मानवता का तू विप्र, गंध-छाया का आदि पुजारी है,
वेदना-पुत्र! तू तो केवल जलने भर का अधिकारी है.
ले बड़ी ख़ुशी से उठा, सरोवर में जो हंसता चाँद मिले,
दर्पण में रचकर फूल, मगर उस का भी मोल चुकाता चल. 
लोहे के पेड़ हरे होंगे...

काया की कितनी धूम-धाम! दो रोज चमक बुझ जाती है;
छाया पीती पीयूष, मृत्यु के ऊपर ध्वजा उडाती है.
लेने दे जग को उसे, ताल पर जो कलहंस मचलता है,
तेरा मराल जल के दर्पण में नीचे-नीचे चलता है.
कनकाभ धूल झर जायेगी, ये रंग कभी उड़ जायेंगे,
सौरभ है केवल सार, उसे तू सब के लिए जगाता चल. 
लोहे के पेड़ हरे होंगे...

क्या अपनी उनसे होड़ अमरता की जिनको पहचान नहीं,
छाया से परिचय नहीं, गंध के जग का जिनको ज्ञान नहीं.
जो चतुर चाँद का रस निचोड़ प्यालों में ढाला करते हैं,
भट्टियां चढ़ाकर फूलों से जो इत्र निकाला करते हैं. 
ये भी जायेंगे कभी, मगर, आधी मनुष्यतावालों पर,
जैसे मुस्काता आया है, वैसे अब भी मुस्काता चल. 
लोहे के पेड़ हरे होंगे...

सभ्यता अंग पर क्षत कराल, यह अर्थ-मानवों का बल है,
हम रोकर भरते उसे, हमारी आँखों में गंगाजल है. 
शूली पर चढ़ा मसीहा को, वे फूले नहीं समाते हैं,
हम शव को जीवित करने को छायापुर में ले जाते हैं. 
भीगी चांदनियों में जीता, जो कठिन धूप में मरता है,
उजियाली से पीड़ित नर के मन में गोधुली बसाता चल. 
लोहे के पेड़ हरे होंगे...

यह देख नई लीला उनकी, फिर उन ने बड़ा कमाल किया,
गांधी के लोहू से सारे, भारत-सागर को लाल किया. 
जी उठे राम, जी उठे कृष्ण, भारत की मिटटी रोती है, 
क्या हुआ कि प्यारे गांधी कि यह लाश न ज़िंदा होती है?
तलवार मारती जिन्हें, बांसुरी उन्हें नया जीवन देती,
जीवनी-शक्ति के अभिमानी! यह भी कमाल दिखलाता चल. 
लोहे के पेड़ हरे होंगे...

धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसायेगी,
दिन की कराल दाहकता पर चाँदनी सुशीतल छाएगी. 
ज्वालामुखियों कि कंठों में कलकंठी का आसन होगा,
जलदों से लदा गगन होगा, फूलों से भरा भुवन होगा. 
बेजान, यंत्र विरचित गूंगी, मूर्तियाँ एक दिन बोलेंगी, 
मुंह खोल-खोल सब के भीतर, शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल. 
लोहे के पेड़ हरे होंगे... 
_________________