'कलिंग विजय' हिंद गौरव राष्ट्र कवि रामधारी सिंह 'दिनकर' रचित ऐसी कालजयी रचना (खंड काव्य) जिसे पढ़ते हुए पाठक के रोंगटे खड़े हो जाते हैं... विश्व इतिहास का सबसे भीषण नरसंहार समेटे कलिंग युद्ध के पश्चात रणक्षेत्र का ऐसा दारुण विवरण कि हृदय से बरबस 'आह' निकल जाती है... क्या आश्चर्य कि इस युद्ध के पश्चात इतिहास का सबसे निष्ठुर और निरंकुश शासक सम्राट अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ और वे जीवन भर के लिए धर्म कि शरण गए...
1
युद्ध की इति हो गई; रण-भू श्रमित सुनसान,
गिरि शिखर पर थम गया है, डूबता दिनमान,
देखता यम का भयावह कृत्य,
अंध मानव की नियति का नृत्य;
सोचता, इस बंधू-वध का क्या हुआ परिणाम?
विश्व को क्या दे गया इतना बड़ा संग्राम?
युद्ध का परिणाम?
युद्ध का परिणाम ह्रासत्रास!
युद्ध का परिणाम सत्यानाश!
रुण्ड-मुण्ड-लुठन, निहिंसन, मीच!
युद्ध का परिणाम लोहित कीच!
हो चुका जो कुछ रहा भवितव्य,
यह नहीं नर के लिए कुछ नव्य,
भूमि का प्राचीन यह अभिशाप,
तू गगनचारी! न कर सन्ताप!
मौन कब के हो चुके रण-तूर्य,
डूब जा तू भी कहीं ओ सूर्य!
छा गया तम, आ गए तारे तिमिर को चीर,
आ गया विधु; किन्तु, क्यों आकृति लिए गंभीर?
और उस घन-खण्ड ने विधु को लिया क्यों ढांक?
फिर गया शशि क्या लजाकर पाप नर के झाँक?
चांदनी घन में मिली है छा रही सब ओर,
सांझ को ही दीखता ज्यों हो गया हो भोर!
मौन हैं चारों दिशाएँ, स्तब्ध है आकाश,
श्रव्य जो भी शब्द, वे उठते मरण के पास!
2
शब्द? यानी घायलों की आह,
घाव के मारे हुओं की क्षीण, करुण कराह,
बह रहा जिसका लहू उस का करुण चीत्कार,
श्वान जिस को नोचते उस की अधीर पुकार,
'घूँट भर पानी, ज़रा पानी' रटन, फिर मौन,
घूँट भर पानी अमृत है, आज देगा कौन?
बोलते यम के सहोदर श्वान,
बोलते जम्बुक कृतान्त-समान.
मृत्यु-गढ़ पर है खडा जयकेतु रेखाकार,
हो गयी हो शांति मरघट की यथा साकार,
चल रहा ध्वज के ह्रदय में द्वन्द,
वैजयंती है झुकी निस्पंद,
जा चुके सब लोग फिर आवास,
हतमना कुछ और कुछ सोल्लास.
अंक में घायल मृतक, निश्चेत,
शूर-वीरों को लिटाये रह गया रण खेत.
और इस सुनसान में निःसंग,
खोजते सच्छान्ति का परिश्वंग,
मूर्तिमय परिताप से विभ्राट.
हैं खड़े केवल मगध सम्राट.
टेक सर ध्वज का लिए अवलम्ब,
आँख से झर-झर बहाते अम्बु.
भूल कर महिपाल का अहमित्व,
शीश पर वध के लिए दायित्व.
जा चुकी है दृष्टि जग के पार,
आ रहा सम्मुख नया संसार.
चिर वक्षोदेश भीतर पैठ,
दे रहा है सत्य का संवाद,
सुन रहे सम्राट कोई नाद.
"मंद मानव! वासना के भृत्य!
देख ले भर आँख निज दुष्कृत्य,
यह धरा तेरी न थी उपनीत,
शत्रु की त्यों ही नहीं थी क्रीत.
सृष्टि सारी एक प्रभु का राज,
स्वत्व है सब का प्रजा के ब्याज.
मानकर प्रति जीव का अधिकार,
ढो रही धरणी सभी का भार.
एक ही स्तन का पयस कर पान,
जी रहे बलहीन औ' बलवान.
देखने को बिम्ब-रूप अनेक,
किन्तु, दृश्याधार दर्पण एक.
मृत्ति तो बिकती यहाँ बेदाम,
सांस से चलता मनुज का काम,
मृत्तिका हो या कि दीपित स्वर्ण,
सांस पाकर मूर्ति होती पूर्ण.
राज या बल पा अमित अनमोल,
सांस का बढ़ता न किंचित मोल.
दीनता, दौर्बल्य या अपमान,
त्यों घटा सकते न इस का मान.
तू हुआ सब कुछ, मनुज लेकिन, रहा अब क्या न?
जो नहीं कुछ बन सका, वह भी मनुज है मान.
हाय रे धनलुब्ध जीव कठोर!
हाय रे दारुण! मुकुटधर भूप लोलुप चोर!
साजकर इतना बड़ा सामान,
स्वत्व निज सर्वत्र अपना मान,
खड्ग-बल का ले मृषा आधार,
छीनता फिरता मनुज के प्राकृतिक अधिकार.
चरण से प्रभु के नियम को चाप,
तू बना है चाहता भगवान् अपना आप.
भौं उठा पायें न तेरे सामने बलहीन,
इसलिए ही तो प्रलय यह! हार रे हिय-हीन.
शमित करने को स्वमद अति ऊन,
चाहिए तुझको मनुज का खून.
क्रूरता का साथ ले आख्यान,
जा चुके जा रहे हैं प्राण.
स्वर्ग में है आज हाहाकार,
चाहता उजड़ा बसा संसार.
भूमि का मानी महीप अशोक,
बांटता फिरता चतुर्दिक शोक.
बांटता सुतशोक औ' वैधव्य,
बांटता पशु को मनुज का क्रव्य.
लूटता है गोदियों के लाल,
लूटता सिन्दूर सज्जित भाल.
यह मनुज तन में किसी शक्रारि का अवतार,
लूट लेता है नगर की सिद्धि, सुख, शृंगार.
शमित करने को स्वमद अति ऊन,
चाहिए उस को मनुज का खून."
3
आत्म-दर्शन की व्यथा, परिताप, पश्चाताप,
डस रहे सब मिल, उठा है भूप का मन कांप.
स्तब्धता को भेद बारम्बार,
आ रहा है क्षीण हाहाकार,
यह हृदय द्रावक, करुण वैधव्य का चीत्कार!
यह किसी बूढ़े पिता कि भग्न, आर्त पुकार.
यह किसी मृतवत्सला की आह!
आ रही करती हुई दिवदाह!
आ रही है दुर्बलों कि हाय,
सूझता है त्राण का नृप को न एक उपाय,
आह कि सेना अजेय विराट,
भाग जा, छिप जा कहीं सम्राट.
खड्ग से होगी नहीं यह भीत,
तू कभी इस को न सकता जीत.
सामने मन के विरुपाकार,
है खडा उल्लंग हो संहार.
षोडशी शुक्लाम्बरायें आभरण कर दूर,
धुल मलकर धो रही है मांग का सिन्दूर
वीर बेटों की चिताएं देख ज्वलित समक्ष,
रो रहीं माएं हजारों पीटती सिर-वक्ष.
हैं खुले नृप के हृदय के कान,
हैं खुले मन के नयन अम्लान.
सुन रहे हैं विह्वला कि आह,
देखते हैं स्पष्ट शव का दाह.
सुन रहे हैं भूप होकर व्यग्र,
रो रहा कैसे कलिंग समग्र.
रो रही हैं वे कि जिन का जल गया शृंगार,
रो रही जिन का गया मिट फूलता संसार,
जल गयी उम्मीद, जिन का जल गया है प्यार,
रो रही जिन का गया छिन एक ही आधार.
चूड़ियां दो एक की प्रतिगृह हुई हैं चूर,
पुंछ गया प्रति गेह से दो एक का सिन्दूर,
बुझ गया प्रतिगृह किसी की आँख का आलोक,
इस महा विध्वंस का दायी महीप अशोक.
ध्यान में थे हो रहे आघात,
कान ने सुन ली मगर, यह बात,
नाम सुन अपना, उसाँसे खींच,
नाक, भौं, आँखें घृणा से मींच.
इस तरह बोले महीपति खिन्न,
आप से ज्यों हो गए हों भिन्न-
"विश्व में पापी महीप अशोक,
छीनता है आँख का आलोक."
देह के दुर्द्धर्ष पशु को मार,
ले चुके हैं देवता अवतार.
निंद्य लगते पूर्वकृत सब काम,
सुन न सकते आज वे निज नाम.
अश्रु में घुल बह गया कुत्सित, निहीन, विवर्ण,
रह गया है शेष केवल तप्त, निर्मल स्वर्ण,
हूक सी आकर गयी कोई हृदय को तोड़,
ठेस से विष-भाण्ड को कोई गयी है फोड़.
बह गया है अश्रु बनकर कालकूट ज्वलंत,
जा रहा भरता दया के दूध से वेशन्त.
दूध अंतर का सरल, अम्लान,
खिल रहा मुख-देश पर द्युतिमान.
किन्तु है अब भी झनत्कृत तार,
बोलते हैं भूप बारम्बार-
"हाय रे गर्हित विजय-मद ऊन,
क्या किया मैनें! बहाया आदमी का खून."
4
खुल गयी है शुभ्र मन की आँख,
खुल गयी है चेतना की पाँख,
प्राण की अन्तःशिला पर आज पहली बार,
जागकर करुणा उठी है कर मृदुल झनकार.
आंसुओं में गल रहे हैं प्राण,
खिल रहा मन में कमल अम्लान.
गिर गया हतबुद्धि सा थक कर पुरुष दुर्जेय,
प्राण से निकली अनामय नारि एक अमेय.
अर्धनारीश्वर अशोक महीप,
नर पराजित, नारि सजती है विजय का दीप.
पायलों की सुन मृदुल झनकार,
गिर गयी कर से स्वयं तलवार.
वज्र का उर हो गया दो टूक,
जब उठी कोई हृदय में हूक.
लाल किरणों में यथा हँसता तटी का देश,
एक कोमल ज्ञान से त्यों खिल उठा हृदेश.
खोल दृग, चारों तरफ अवलोक,
सिर झुका कहने लगे मानी महीप अशोक-
'हे नियंता, विश्व के कोई अचिन्त्य, अमेय!
ईश या जगदीश कोई शक्ति है अज्ञेय!
हों नहीं क्षन्तव्य जो मेरे विगर्हित पाप,
दो वचन, अक्षय रहे यह ग्लानी, यह परिताप.
प्राण में बल दो, रखूं निज को सदैव संभाल,
देव, गर्वस्फीत हो उंचा उठे मत भाल.
शत्रु हो कोई नहीं, हो आत्मवत संसार,
पुत्र सा पशु-पक्षियों को भी सकूँ कर प्यार.
मिट नहीं जाए किसी का चरण चिह्न पुनीत,
राह में भी मैं चलूँ पग-पग सजग, सम्भीत.
हो नहीं मुझ को किसी पर रोष,
धर्म का गूंजे जगत में घोष.
बुद्ध की जय! धर्म की जय! संघ का जय-गान,
आ बसें मुझ में तथागत मारजित भगवान्.
देवता को सौंपकर सर्वस्व,
भूप मन ही मन गए हो निःस्व.
5
और तब उन्मादिनी सोल्लास,
रक्त पर बहती विजय आयी वरण को पास.
संग लेकर ब्याह का उपहार,
रक्त-कर्दम के कमल का हार.
पर, डिगे तिल-भर न वीर महीप,
थी जला करुणा, चुकी तब तक विजय का दीप.
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जा चुकी है दृष्टि जग के पार,
आ रहा सम्मुख नया संसार.
चिर वक्षोदेश भीतर पैठ,
दे रहा है सत्य का संवाद,
सुन रहे सम्राट कोई नाद.
"मंद मानव! वासना के भृत्य!
देख ले भर आँख निज दुष्कृत्य,
यह धरा तेरी न थी उपनीत,
शत्रु की त्यों ही नहीं थी क्रीत.
सृष्टि सारी एक प्रभु का राज,
स्वत्व है सब का प्रजा के ब्याज.
मानकर प्रति जीव का अधिकार,
ढो रही धरणी सभी का भार.
एक ही स्तन का पयस कर पान,
जी रहे बलहीन औ' बलवान.
देखने को बिम्ब-रूप अनेक,
किन्तु, दृश्याधार दर्पण एक.
मृत्ति तो बिकती यहाँ बेदाम,
सांस से चलता मनुज का काम,
मृत्तिका हो या कि दीपित स्वर्ण,
सांस पाकर मूर्ति होती पूर्ण.
राज या बल पा अमित अनमोल,
सांस का बढ़ता न किंचित मोल.
दीनता, दौर्बल्य या अपमान,
त्यों घटा सकते न इस का मान.
तू हुआ सब कुछ, मनुज लेकिन, रहा अब क्या न?
जो नहीं कुछ बन सका, वह भी मनुज है मान.
हाय रे धनलुब्ध जीव कठोर!
हाय रे दारुण! मुकुटधर भूप लोलुप चोर!
साजकर इतना बड़ा सामान,
स्वत्व निज सर्वत्र अपना मान,
खड्ग-बल का ले मृषा आधार,
छीनता फिरता मनुज के प्राकृतिक अधिकार.
चरण से प्रभु के नियम को चाप,
तू बना है चाहता भगवान् अपना आप.
भौं उठा पायें न तेरे सामने बलहीन,
इसलिए ही तो प्रलय यह! हार रे हिय-हीन.
शमित करने को स्वमद अति ऊन,
चाहिए तुझको मनुज का खून.
क्रूरता का साथ ले आख्यान,
जा चुके जा रहे हैं प्राण.
स्वर्ग में है आज हाहाकार,
चाहता उजड़ा बसा संसार.
भूमि का मानी महीप अशोक,
बांटता फिरता चतुर्दिक शोक.
बांटता सुतशोक औ' वैधव्य,
बांटता पशु को मनुज का क्रव्य.
लूटता है गोदियों के लाल,
लूटता सिन्दूर सज्जित भाल.
यह मनुज तन में किसी शक्रारि का अवतार,
लूट लेता है नगर की सिद्धि, सुख, शृंगार.
शमित करने को स्वमद अति ऊन,
चाहिए उस को मनुज का खून."
3
आत्म-दर्शन की व्यथा, परिताप, पश्चाताप,
डस रहे सब मिल, उठा है भूप का मन कांप.
स्तब्धता को भेद बारम्बार,
आ रहा है क्षीण हाहाकार,
यह हृदय द्रावक, करुण वैधव्य का चीत्कार!
यह किसी बूढ़े पिता कि भग्न, आर्त पुकार.
यह किसी मृतवत्सला की आह!
आ रही करती हुई दिवदाह!
आ रही है दुर्बलों कि हाय,
सूझता है त्राण का नृप को न एक उपाय,
आह कि सेना अजेय विराट,
भाग जा, छिप जा कहीं सम्राट.
खड्ग से होगी नहीं यह भीत,
तू कभी इस को न सकता जीत.
सामने मन के विरुपाकार,
है खडा उल्लंग हो संहार.
षोडशी शुक्लाम्बरायें आभरण कर दूर,
धुल मलकर धो रही है मांग का सिन्दूर
वीर बेटों की चिताएं देख ज्वलित समक्ष,
रो रहीं माएं हजारों पीटती सिर-वक्ष.
हैं खुले नृप के हृदय के कान,
हैं खुले मन के नयन अम्लान.
सुन रहे हैं विह्वला कि आह,
देखते हैं स्पष्ट शव का दाह.
सुन रहे हैं भूप होकर व्यग्र,
रो रहा कैसे कलिंग समग्र.
रो रही हैं वे कि जिन का जल गया शृंगार,
रो रही जिन का गया मिट फूलता संसार,
जल गयी उम्मीद, जिन का जल गया है प्यार,
रो रही जिन का गया छिन एक ही आधार.
चूड़ियां दो एक की प्रतिगृह हुई हैं चूर,
पुंछ गया प्रति गेह से दो एक का सिन्दूर,
बुझ गया प्रतिगृह किसी की आँख का आलोक,
इस महा विध्वंस का दायी महीप अशोक.
ध्यान में थे हो रहे आघात,
कान ने सुन ली मगर, यह बात,
नाम सुन अपना, उसाँसे खींच,
नाक, भौं, आँखें घृणा से मींच.
इस तरह बोले महीपति खिन्न,
आप से ज्यों हो गए हों भिन्न-
"विश्व में पापी महीप अशोक,
छीनता है आँख का आलोक."
देह के दुर्द्धर्ष पशु को मार,
ले चुके हैं देवता अवतार.
निंद्य लगते पूर्वकृत सब काम,
सुन न सकते आज वे निज नाम.
अश्रु में घुल बह गया कुत्सित, निहीन, विवर्ण,
रह गया है शेष केवल तप्त, निर्मल स्वर्ण,
हूक सी आकर गयी कोई हृदय को तोड़,
ठेस से विष-भाण्ड को कोई गयी है फोड़.
बह गया है अश्रु बनकर कालकूट ज्वलंत,
जा रहा भरता दया के दूध से वेशन्त.
दूध अंतर का सरल, अम्लान,
खिल रहा मुख-देश पर द्युतिमान.
किन्तु है अब भी झनत्कृत तार,
बोलते हैं भूप बारम्बार-
"हाय रे गर्हित विजय-मद ऊन,
क्या किया मैनें! बहाया आदमी का खून."
4
खुल गयी है शुभ्र मन की आँख,
खुल गयी है चेतना की पाँख,
प्राण की अन्तःशिला पर आज पहली बार,
जागकर करुणा उठी है कर मृदुल झनकार.
आंसुओं में गल रहे हैं प्राण,
खिल रहा मन में कमल अम्लान.
गिर गया हतबुद्धि सा थक कर पुरुष दुर्जेय,
प्राण से निकली अनामय नारि एक अमेय.
अर्धनारीश्वर अशोक महीप,
नर पराजित, नारि सजती है विजय का दीप.
पायलों की सुन मृदुल झनकार,
गिर गयी कर से स्वयं तलवार.
वज्र का उर हो गया दो टूक,
जब उठी कोई हृदय में हूक.
लाल किरणों में यथा हँसता तटी का देश,
एक कोमल ज्ञान से त्यों खिल उठा हृदेश.
खोल दृग, चारों तरफ अवलोक,
सिर झुका कहने लगे मानी महीप अशोक-
'हे नियंता, विश्व के कोई अचिन्त्य, अमेय!
ईश या जगदीश कोई शक्ति है अज्ञेय!
हों नहीं क्षन्तव्य जो मेरे विगर्हित पाप,
दो वचन, अक्षय रहे यह ग्लानी, यह परिताप.
प्राण में बल दो, रखूं निज को सदैव संभाल,
देव, गर्वस्फीत हो उंचा उठे मत भाल.
शत्रु हो कोई नहीं, हो आत्मवत संसार,
पुत्र सा पशु-पक्षियों को भी सकूँ कर प्यार.
मिट नहीं जाए किसी का चरण चिह्न पुनीत,
राह में भी मैं चलूँ पग-पग सजग, सम्भीत.
हो नहीं मुझ को किसी पर रोष,
धर्म का गूंजे जगत में घोष.
बुद्ध की जय! धर्म की जय! संघ का जय-गान,
आ बसें मुझ में तथागत मारजित भगवान्.
देवता को सौंपकर सर्वस्व,
भूप मन ही मन गए हो निःस्व.
5
और तब उन्मादिनी सोल्लास,
रक्त पर बहती विजय आयी वरण को पास.
संग लेकर ब्याह का उपहार,
रक्त-कर्दम के कमल का हार.
पर, डिगे तिल-भर न वीर महीप,
थी जला करुणा, चुकी तब तक विजय का दीप.
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