मिट्टी दीन कितनी हाय!
ह्रदय की ज्वाला जलाती,
अश्रु की धारा बहाती,
और उर-उच्छ्वास में यह कांपती निरुपाय!
मिट्टी दीन कितनी हाय!
शून्यता एकांत मन की,
शून्यता जैसे गगन की,
थाह पाती है न इसका मृत्तिका असहाय!
मिट्टी दीन कितनी हाय!
वह किसे दोषी बताये,
और किसको दुःख सुनाये,
जब की मिट्टी साथ मिट्टी के करे अन्याय!
मिट्टी दीन कितनी हाय!
__________________________