नीड़ का निर्माण फिर फिर.
नेह का आह्वान फिर फिर.
वह उठी की आंधी कि नभ में,
छ गया सहसा अन्धेरा.
धूलि धूसर बादलों ने
भूमि को इस भांति घेरा.
रात सा दिन हो गया फिर,
रात आई और काली.
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा
रात के उत्पात भय से,
भीत जन-जन, भीत कण-कण.
किन्तु प्राची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर फिर.
नीड़ का निर्माण फिर फिर
नेह का आह्वान फिर फिर
वह चले झोंके कि कांपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड पुखड़कर
गिर पड़े टूटे विटप पर
हाय! तिनकों से विनिर्मित
घोंसलों पर क्या न बीती
डगमगाये जबकि कंकड़,
ईंट पत्थर के महल घर
बोल आशा के विहंगम,
किस जगह पर तू छिपा है,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर फिर
नीड़ का निर्माण फिर फिर
नेह का आह्वान फिर फिर
क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों
में उषा है मुस्कुराती
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती
एक चिड़िया चोंच में तिनका
लिए जो जा रही है
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती
नाश के दुःख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नवगान फिर फिर
नीड़ का निर्माण फिर फिर
नेह का आह्वान फिर फिर
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