पढने और संकलन का शौक ही इस ब्लॉग का आधार है... महान कवि, शायर, रचनाकार और उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ.... हमारे मित्र... हमारे गुरु... हमारे मार्गदर्शक... निश्चित रूप से हमारी बहुमूल्य धरोहर... विशुद्ध रूप से एक अव्यवसायिक संकलन जिसका एक मात्र और निःस्वार्थ उद्देश्य महान काव्य किवदंतियों के अप्रतिम रचना संसार को अधिकाधिक काव्य रसिकों तक पंहुचाना है... "काव्य मंजूषा"

Thursday 14 March 2013

मंगल आह्वान

भावों के आवेग प्रबल
मचा रहे उर में हलचल!
          कहते उर के बाँध तोड़
          स्वर स्त्रोतों में बह-बह अनजान,
          तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को 
          छा लेंगे हम बन के गान.
पर हूँ विवश, गान से कैसे 
जग को हाय! जगाऊं में,
इस तमिस्त्र युग-बीच ज्योति की  
कौन रागिनी गाऊं मैं?
          बाट जोहता हूँ, लाचार
          आओ, स्वरसम्राट! उदार.

पल भर को मेरे प्राणों में 
ओ विराट गायक! आओ,
इस बंशी पर रसमय स्वर में
युग-युग के गायन गाओ.
          वे गायन, जिन को न आज तक 
          गाकर सिरा सका जल-थल,
          जिन की तान-तान पर आकुल 
          सिहर सिहर उठता उडु-दल. 
आज सरित का कल-कल, छल-छल
निर्झर का अविरल झर-झर,
पावस के बूंदों की रिमझिम 
पीले पत्तों का मर्मर, 
          जलधि-साँस, पक्षी के कलरव,
          अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन 
          मेरी वंशी के छिद्रों में 
          भर दो ये मधु स्वर चुन-चुन.
दो आदेश फूंक दूं श्रृंगी
उठें प्रभाती-राग महान,
तीनों काल ध्वनित हों स्वर में,
आगे सुप्त भुवन के प्राण. 
          गत विभूति, भावी की आशा
          ले युगधर्म पुकार उठे, 
          सिंहों की घन-अंध गुहा में
          जागृति की हुंकार उठे.
जिनका लुटा सुहाग, ह्रदय में 
उनके दारुण हूक उठे, 
चीखूँ यों कि याद कर ऋतुपति 
की कोयल से कूक उठे. 
          प्रियदर्शन इतिहास कंठ में 
          आज ध्वनित हो काव्य बने, 
          वर्तमान की चित्रपटी पर-
          भूतकाल संभाव्य बने. 
जहां-जहां घन-तिमिर ह्रदय में
भर दो वहाँ विभा प्यारी
दुर्बल प्राणों की नस-नस में
देव! फूंक दो चिंगारी. 
          ऐसा दो वरदान कला को 
          कुछ भी रहे अजेय नहीं,
          रजकण से ले पारिजात तक 
          कोई रूप अगेय नहीं. 
प्रथम खिली जो मधुर ज्योति 
कविता वन तमसा-कूलों में,
जो हंसती आ रही युगों से 
नभ-दीपों, वनफूलों में. 
          सुर-सुर, तुलसी-शशि जिसकी 
          विभा यहाँ फैलाते हैं, 
          जिस के बुझे कणों को पा कवि
          अब खद्योत कहाते हैं. 
उसकी विभा प्रदीप्त करे
मेरे उर का कोना-कोना,
छू दे यदि लेखनी, धूल भी
चमक उठे बनकर सोना.  

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