पढने और संकलन का शौक ही इस ब्लॉग का आधार है... महान कवि, शायर, रचनाकार और उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ.... हमारे मित्र... हमारे गुरु... हमारे मार्गदर्शक... निश्चित रूप से हमारी बहुमूल्य धरोहर... विशुद्ध रूप से एक अव्यवसायिक संकलन जिसका एक मात्र और निःस्वार्थ उद्देश्य महान काव्य किवदंतियों के अप्रतिम रचना संसार को अधिकाधिक काव्य रसिकों तक पंहुचाना है... "काव्य मंजूषा"

Friday 27 July 2012

दिले बेक़रार

पसे मर्ग' मेरे मज़ार पर जो दिया किसी ने जला दिया. 
उसे आह! दामने बाद' ने सरे शाम' ही से बुझा दिया. 

मुझे दफ़्न करना तू जिस घड़ी तो ये उससे कहना कि ऐ परी,
वो जो तेरा आशिक़े ज़ार' था तहे ख़ाक उसको दबा दिया. 

दमे ग़ुस्ल' से मेरे पेशतर' उसे हमदमों' ने ये सोचकर,
कहीं जावे उसका न दिल दहल, मेरी लाश पर से उठा दिया. 

मेरी आँख झपकी थी एक पल मेरे दिल ने चाहा कि उठ के चल,
दिले बेक़रार ने ओ मियाँ! वहीँ चुटकी लेके जगा दिया. 

मैंने दिल दिया, मैंने जान दी, मगर आह तूने न क़द्र की,
किसी बात को जो कभी कहा, उसे चुटकियों में उड़ा दिया.

_________________शब्दार्थ___________________
पसेमर्ग=मौत के बाद | दामने बाद=हवा का आँचल | सरेशाम=शाम ढलते ही | आशिक़ेज़ार=दुखी आशिक़ | दमे ग़ुस्ल=नहलाते वक़्त(शव को) | पेशतर=पहले ही | हमदमों=दोस्तों | 
_________________________________________