पढने और संकलन का शौक ही इस ब्लॉग का आधार है... महान कवि, शायर, रचनाकार और उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ.... हमारे मित्र... हमारे गुरु... हमारे मार्गदर्शक... निश्चित रूप से हमारी बहुमूल्य धरोहर... विशुद्ध रूप से एक अव्यवसायिक संकलन जिसका एक मात्र और निःस्वार्थ उद्देश्य महान काव्य किवदंतियों के अप्रतिम रचना संसार को अधिकाधिक काव्य रसिकों तक पंहुचाना है... "काव्य मंजूषा"

Sunday 1 July 2012

उजड़ता खेत

जतन बिन मिरगा ने खेत उजारा. 

पांच मिरग पच्चीस मिरगनी, ता में तीन चिकारा.
अपने अपने रस के भोगी, चुगते न्यारा न्यारा. 
जतन बिन मिरगा ने खेत उजारा. 

उठ के झुण्ड मृगा के आये, बैठे खेत मंझारा.
हो हो करत बली ले भागे मुख बाए रखवारा. 
जतन बिन मिरगा ने खेत उजारा. 

मारे मरे न टरे नहीं टारे, बिगरे नाहिं बिडारा.
अति परपंच महा दुखदाई, तीन लोक पचि हारा. 
जतन बिन मिरगा ने खेत उजारा. 

ज्ञान का भूला सुरति चूका, गुरू शब्द रखवारा.
कहै कबीर सुनो भाई संतों, बिरला भले सहारा. 
जतन बिन मिरगा ने खेत उजारा.
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