पढने और संकलन का शौक ही इस ब्लॉग का आधार है... महान कवि, शायर, रचनाकार और उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ.... हमारे मित्र... हमारे गुरु... हमारे मार्गदर्शक... निश्चित रूप से हमारी बहुमूल्य धरोहर... विशुद्ध रूप से एक अव्यवसायिक संकलन जिसका एक मात्र और निःस्वार्थ उद्देश्य महान काव्य किवदंतियों के अप्रतिम रचना संसार को अधिकाधिक काव्य रसिकों तक पंहुचाना है... "काव्य मंजूषा"

Wednesday 13 June 2012

दुर्र-ए-नायाब

जाते थे सुबह रह गये बेताब देखकर. 
ताला' हमारे चौंक पड़े ख्वाब देखकर. 

पाया जो दुश्मनों ने तेरे पास ऐतबार, 
आँखें चुराते हैं मुझे अहबाब' देखकर. 

तौबा कहाँ कदूरते-बातिन' के होश थे, 
गश हो गया मैं रंग-मये-नाब' देखकर. 

रोये वह मेरे हाल पर हैरान क्यों न हो,
आँखें से खुल गईं दुर्र-ए-नायाब' देखकर.

है है तमीज इश्को हवस आज तक नहीं, 
वह छिपते फिरते हैं मुझे बेताब देखकर. 

'मोमिन' यह ताब' क्या कि तकाजा-ए-जलवा' हो,
काफिर हुआ मैं दीन' के आदाब' देखकर. 

_____________________________शब्दार्थ _______________________________
ताला=भाग्य | ऐतबार=भरोसा | अहबाब=मित्रगण | कदूरते-बातिन=भीतरी अदावत | रंग-मये-नाब=शराब का रंग | दुर्र-ए-नायाब=दुर्लभ मोती | इसको-हवस=प्रेम और कामना | ताब=ताकत | तकाजा-ए-जलवा=दर्शन कि चाहत | दीन=धर्म | आदाब=शिष्टाचार
____________________________________________________________________